कोलकाता। लगभग सबके जीवन में तनाव है। हर कोई किसी न किसी समस्या से जूझ रहा है। किसी को मानसिक पीड़ा है तो किसी को शारीरिक। हर कोई अपने तरीके से इनसे पार पाने की कोशिश करता है। फिल्म देखने जाना इनमे से एक है पर क्या अपने नोटिस किया है कि सिनेमा जो अब मल्टीप्लेक्स बन गए हैं, सबके लिए नहीं हैं। माध्यम वर्ग तो फिर कभी कभार आ-जा पाता है। गरीब को तो पता ही नहीं होगा कि अंदर से ये दिखता कैसा है।
युवा वर्ग की तो दुनिया ही फ़ोन है। इसी में जीना और इसी में मरना। इंस्टा और फेसबुक छोड़ेंगे तो वे दुनिया की ओर देखेंगे।
ये तो अब का हाल है। पहले कैसे लोग तनाव या स्ट्रेस से निजात पाते थे। मेले थे इसका सबसे बेहतरीन जरिया। आए दिन मेले लगते थे। देवी-देवता के नाम पर। जगह के नाम पर। लोकल कोई चीज बहुत मशहूर है तो उसके नाम पर। या फिर अलग -अलग शहरों के लोग अपना सामान लेकर कहीं जमा होते और लग गया मेला।

यहां बिना किसी भेदभाव के लोग एक-दूसरे से मिलते -जुलते हैं। भारत विविधता से भरा देश है। जितने लोग उतनी रीतियां और उतने ही रिवाज। सबके अपने त्यौहार और मेले। हिमाचल में दशहरा कई दिनों का होता है। हरियाणा का सूरजकुंड मेला। पंजाब के वैसाखी के मेले सब जगह प्रसिद्ध हैं। अकेले कोलकाता में ही 250 से अधिक मेले देखने को मिलता हैं। यहां हुगली जिले में अकेले हर साल 300 से 350 मेले लगते हैं।
परंपरा या आर्थिक पहलू के लिए, आज भी पूरे बंगाल में मेले लगते हैं। हर साल इनकी संख्या लगभग 5,000 से 6,000 होती है।
इनमें हैं हस्त शिल्प मेला, यात्रा और पर्यटन मेला, सबला मेला, सरस मेला, त्रिधारा उत्सव, मैडॉक्स स्क्वायर मेला, राज्य खादी मेला, नाले झोले, सिंथिर मोर मेला, राजदंगा पिथे पुली उत्सव, पाटुली लोक संस्कृति उत्सव ओ मेला। अर्थशास्त्री अचिन चक्रवर्ती कहते हैं, आज हम जो मेले देखते हैं, वे बहुत अलग हैं। पहले गांव के मेलों में ऐसा नहीं होता था।
कलकत्ता की वर्नाक्यूलर लिटरेचर कमेटी द्वारा प्रकाशित पंचांग में1855-56, बंगाल में 309 प्रसिद्ध मेलों का विवरण है।

मानवविज्ञानी और पश्चिम बंगाल लोक एवं जनजातीय सांस्कृतिक केंद्र के सेवानिवृत्त अधिकारी दीपांकर घोष कहते हैं, जब भी कोई मेला होता है, तो क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। पूर्वी मिदनापुर का महिषादल मेला कटहल के लिए जाना जाता है। उत्तर 24-परगना के गोबरडांगा में गोस्थो बिहारी मेले के दौरान, मसाले केंद्रबिंदु होते हैं।
वो कहते हैं, फसल के बाद अर्जित धन का कुछ हिस्सा इन मेलों में खर्च किया जाता था और स्थानीय कारीगरों को भी मुनाफे का हिस्सा बनने का मौका मिलता था। इस अर्थ में मेला कृषि प्रधान समाज में आर्थिक संतुलन बनाए रखने के लिए उपयोग किया जाता है।