5 साल में देश भर में करीब 90 हजार हेक्टेयर वन भूमि का गैर वनीय उपयोग
नई दिल्ली – चंडीगढ़। रोज़ हो-हल्ला मचाया जाता है कि पर्यावरण को नुक्सान हो रहा है। ये करो वो करो, या फिर ये न करो वो न करो। पेड़ मत काटो। काटे हैं तो उससे पहले मंजूरी लो या फिर उतने ही लगाओ। और भी जाने क्या क्या। लेकिन किया सब कुछ इसके उल्ट जा रहा है। सरकारें खुद विकास के नाम पर जंगली भूमि और जंगलों को खाने में लगी हैं।
अगर सरकार को सख्त मैसेज देना है कि किसी ने अवैध या बिना मंजूरी के पेड़ काटे तो खैर नहीं तो सबसे पहले खुद से ही शुरुआत करनी होगी। कथनी और करनी एक जैसी दिखनी चाहिए।
अभी कुछ घंटों पहले ही की खबर है कि कर्नाटक में बीजेपी सांसद के भाई ने 150 के क़रीब पेड़ काट डाले हैं जिनकी उम्र 60 साल से ज्यादा थी। ये तब हुआ है जब सेंटर में सरकार भी बीजेपी की है।
एक नज़र आंकड़ों पर डालते हैं।
पिछले 15 साल में भारत में तीन लाख हेक्टेयर से ज़्यादा वन भूमि को गैर-वनीय उपयोग के लिए मंजूर किया गया है।
वर्तमान में पंजाब में कुल वन क्षेत्र 1,84,700 हेक्टेयर है।
सदन में प्रस्तुत सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि पंजाब में 61,318 हेक्टेयर वन भूमि है जो 2008-09 के बाद से गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए उपयोग की गई है। ये सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में सबसे अधिक है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर ये मंजूर की गई तो क्यों नहीं इसके दुष्परिणामों का ध्यान रखा गया। अगर बिना मंजूरी के अवैध कटी है या बदली गई है तो उनपर कार्रवाई क्यों नहीं हुई जिन्होंने ये कांड किया।
आंकड़े बताते हैं कि खनन ने सबसे बड़े क्षेत्र 58,282 हेक्टेयर को प्रभावित किया है। यहां सड़क निर्माण, सिंचाई, जल विद्युत और ट्रांसमिशन लाइनें काम शामिल हैं जो पर्यावरण को सीधे सीधे प्रभावित करते हैं।
अभी हाल ही में होशियारपुर में सड़कें चौड़ीं करने के नाम पर में रोड पर काफी संख्या में पेड़ काट डाले गए थे। इससे पहले भी रोपड़ और होशियारपुर में खैर के पेड़ काटने का नोटिस लिया गया था और पंजाब एन्ड हरियाणा हाई कोर्ट ने इनके कटने पर रोक लगा दी थी। कोर्ट ने कहा था कि पहले ये बताया जाए कि इसकी ज़रूरत क्या है और इसका नुकसान कितना होगा। उसके बाद ही कोर्ट मंज़ूरी देगी।
7 अगस्त 2023 को लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने बताया कि पिछले 15 वर्षों (2008-09 से 2022-23) में 3,05,756 हेक्टेयर वन भूमि का डायवर्जन हुआ है। वहीं अगर पिछले 5 वर्षों के आंकड़ों को देखें तो करीब 90 हजार हेक्टेयर वन भूमि का डायवर्जन हुआ है।
अप्रैल 2018 से मार्च 2023 के बीच देशभर के 33 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों की सबसे अधिक वन भूमि सड़क और खनन के लिए ली गई है।
पिछले 5 साल में देश भर में करीब 90 हजार हेक्टेयर वन भूमि, गैर वनीय उपयोग के लिए परिवर्तित कर दी गई है। 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनने के बाद से देश में यह आंकड़ा सवा 10 लाख हेक्टेयर को पार कर गया है। यानी 1980 के बाद से अब तक सवा दस लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा वन भूमि का गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्जन हुआ है।
डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, यह भूमि दिल्ली के भौगोलिक क्षेत्रफल से लगभग 7 गुना अधिक है। उदारीकरण से ठीक पहले साल 1990 में सर्वाधिक 1 लाख 27 हजार से अधिक वन भूमि का डायवर्जन हुआ था। दूसरा सबसे बड़ा डायवर्जन साल 2000 में हुआ। जबकि इस साल 1 लाख 16 हजार से अधिक वन भूमि गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्ट की गई है।
पिछले 5 सालों में सड़क (19,497 हेक्टेयर) और खनन (18,790 हेक्टेयर) के लिए 38,767 हेक्टेयर (43 प्रतिशत) भूमि का डायवर्जन हुआ है। ट्रांसमिशन लाइन व सिंचाई के लिए 10 हजार हेक्टेयर से अधिक वन भूमि का उपयोग किया गया है। रक्षा से जुड़ी परियोजनाओं के लिए 7,631 हेक्टेयर, हाइड्रो परियोजना के लिए 6,218 हेक्टेयर और रेलवे के लिए 4,770 हेक्टेयर भूमि का डायवर्जन किया गया है। इनके अतिरिक्त नहरों, अस्पताल/डिस्पेंसरी, पेयजल, वनग्रामों के कन्वर्जन, उद्योग, ऑप्टिकल फाइबर केबल, पाइपलाइन, पुनर्वास, स्कूल, सौर ऊर्जा, ताप ऊर्जा, पवन ऊर्जा, गांवों में विद्युतीकरण की परियोजनाओं के लिए भी वन भूमि का बड़े पैमाने पर डायवर्जन हुआ है।
दुनिया भर के जंगल खतरे में!
देखा जाए तो दुनिया भर के जंगल खतरे में है। साल 2022 में ही करीब 66 लाख हेक्टेयर में फैले जंगल इंसानी फितरत की भेंट चढ़ गए। यानी हर मिनट में दुनिया भर में करीब 13 हेक्टेयर में फैले जंगल काटे जा रहे हैं। इसके लिए कृषि, पशुपालन, सोया की खेती, ताड़ के तेल का उत्पादन और छोटी जोत वाली खेती प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। इनके साथ ही सड़कों का बिछता जाल, पेड़ों की व्यावसायिक रूप से हो रही कटाई भी इनको गंभीर नुकसान पहुंचा रही है।
दुनिया भर के पर्यावरण संगठनों के गठबंधन द्वारा जारी नई रिपोर्ट ‘2023 फारेस्ट डिक्लेरेशन असेसमेंट : ऑफ ट्रैक एंड फॉलिंग बिहाइंड’ में इस बात का मूल्यांकन किया गया है कि देश, कंपनियां और निवेशक 2030 तक वनों की कटाई को समाप्त करने और 35 करोड़ हेक्टेयर क्षतिग्रस्त भूमि की बहाली के अपने वादों को पूरा करने के लिए कितना बेहतर कर रहे हैं।
आग से हर मिनट करीब 16 फुटबॉल मैदानों के बराबर जंगल स्वाहा
ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के 2022 के आंकड़ों से पता चला है कि आग से हर मिनट करीब 16 फुटबॉल मैदानों के बराबर जंगल स्वाहा हो रहे हैं। 2021 में वैश्विक स्तर पर करीब 93 लाख हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ गए थे। रिपोर्ट के अनुसार उष्णकटिबंधीय एशियाई देशों में बेसलाइन की तुलना में वनों की कटाई में 18 फीसदी की कमी आई है। मलेशिया और इंडोनेशिया ने 2022 के लिए तय अपने अंतरिम लक्ष्यों को हासिल कर लिया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जल्द दुनिया में जंगलों की इस कटाई को 27.8 फीसदी तक कम करने की जरूरत है।
क्लाइमेट फोकस के वरिष्ठ सलाहकार एरिन मैट्सन का कहना है कि दुनिया भर के जंगल खतरे में हैं। यदि तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखना है तो इन जंगलों को बरकरार रखना बेहद जरूरी है। जंगलों की हो रही कटाई को रोकने के लिए व्यवस्था में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। 2021 की तुलना में 2022 के दौरान वैश्विक स्तर पर चार फीसदी ज्यादा तेजी से वनों का सफाया किया गया है।
जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए एशियाई वन विविधता बेहद जरूरी: अध्ययन
एशिया के वन पहले की तुलना में जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लचीले हो सकते हैं, बशर्ते कि उनकी विविधता बरकरार रखी जाए। एक अध्ययन में कहा गया है कि जंगल जलवायु परिवर्तन को रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि पेड़ों में विविधता जंगल के महत्व को और भी बढ़ा देती है।
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, सिडनी विश्वविद्यालय की डॉ. रेबेका हैमिल्टन के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने पाया है कि 19,000 साल के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में अलग-अलग तरह के ढके और खुले जंगल थे।
उनकी विविधता बरकरार रखने की ज़रूरत है। वे बताते हैं कि पूरे क्षेत्र में रहने वाले लोगों और जानवरों के पास पहले की तुलना में अधिक विविध प्राकृतिक संसाधन रहे होंगे। फिर भी बहुत कुछ संभाला जा सकता है। ये अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है।
सिडनी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ जियोसाइंसेज के डॉ. हैमिल्टन ने कहा कि जलवायु परिवर्तन में तेजी आने के साथ, वैज्ञानिक और पारिस्थितिकी विज्ञानी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इसका दक्षिण पूर्व एशिया जैसे क्षेत्रों के वर्षा वनों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
उन्होंने कहा कि लचीलेपन की सुविधा प्रदान करने वाले वनों को बनाए रखना क्षेत्र के लिए एक अहम संरक्षण उद्देश्य होना चाहिए। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि मौसम के अनुसार शुष्क वनों के प्रकारों के साथ-साथ 1000 मीटर से ऊपर के जंगलों, जिन्हें ‘पर्वतीय वन’ भी कहा जाता है, उनकी सुरक्षा को प्राथमिकता देना महत्वपूर्ण है।