अपने ही गाँव घर में, अपनी शरण नहीं है,
लगता वतन ये अपना, अपना वतन नहीं है,
बाहर बसे लुटेरे, घर में घुसे लुटेरे,
भय से भरा है जीवन, उन्मुक्त मन नहीं है।
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जाना कहीं है मुश्किल, आना कहीं है मुश्किल,
असवाब सा लुटोगे, ढँकने को तन नहीं है,
हवालों का घर यही है, घोटालों का घर यही है,
कैक्टस भरा है गुलशन, कोई सुमन नहीं है।
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आदमी है बेसहारे, रोते बने बेचारे,
रक्षक बना है भक्षक, प्यारा स्वजन नहीं है,
जीना मुहाल देखो, मरना मुहाल देखो,
बेचैनियों की दुनिया कहीं अमन नहीं है।
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इंसान जो सही है सबसे दुखी वही है,
कैसे बचेंगे? दुख से, कोई जतन नहीं है,
पलटन, पुलिस, प्रशासन सबमें है खोखलापन,
कुछ कर नहीं ये पाते, विषधर का फन नहीं है।
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कहने को मुक्त हैं हम, लेकिन हजारों हैं गम,
आजाद हो के हमको, सुकुनो अमन नहीं है,
किससे कहोगे सदमा, अपना है आज सपना,
इंसानियत का लगता, बिल्कुल चलन नहीं है।
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जग जाओ हिंद वालों, अपने को अब संभालो,
मिटाओ दरिंदगी को, मिथ्या कथन नहीं है,
संघर्ष से जुड़ो तुम, सुरक्षा के हित लड़ो तुम,
इसके बिना तुम्हारा, आसां जीवन नहीं है।
-राजेश ओझा ‘धर्मशील’
पत्रकार-अनुवादक
बनारस में रहते हैं