नई दिल्ली। दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि माता-पिता में से किसी एक का अफेयर है तो यह बात बच्चे की कस्टडी में बाधा नहीं हो सकती पर इससे संतान को हानि नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा, व्यभिचारी जीवनसाथी का मतलब अयोग्य माता या पिता नहीं है। न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और जस्टिस नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने कहा कि जब माता-पिता की ओर से व्यभिचार साबित हो जाता है, तब भी उन्हें बच्चे की कस्टडी से वंचित नहीं किया जा सकता। जब तक कि यह साबित न हो जाए कि इस तरह के रिश्ते बच्चे के लिए हानिकारक हैं।
एक दंपती ने क्रॉस याचिका दायर कर हाईकोर्ट में पारिवारिक अदालत के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें दोनों को संयुक्त रूप से उनकी दो नाबालिग बेटियों की कस्टडी सौंपी गई थी। कोर्ट ने कहा, सरकारी सेवा में कार्यरत माता-पिता को बच्चों की देखभाल के लिए समान रूप से रखा गया है। इसलिए अदालत को बच्चों की संयुक्त कस्टडी देने के पारिवारिक अदालत के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिला।
मामले में पत्नी ने आरोप लगाया था कि उसका पति गैर-जिम्मेदार है। वह करीब ढाई साल तक उसे और दोनों बेटियों को छोड़कर भाग गया था। उसने दावा किया कि उसके पति की बहन ने बच्चों का अपहरण कर लिया और उसे ससुराल से निकाल दिया था। इस वजह से उसने बच्चों की कस्टडी के लिए याचिका दायर की। इस बीच पति ने दावा किया कि मां गैर-जिम्मेदार है। वह नाबालिग बेटियों की देखभाल नहीं करती थी।
मां द्वारा उपेक्षा का सबूत नहीं
अदालत ने मामले में पाया कि रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत दर्शाते हैं कि मां अक्सर अपना समय तीसरे व्यक्ति के साथ बिताती थी। कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता पति के लिए मां भले ही वफादार पत्नी नहीं रही होगी, लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि वह नाबालिग बच्चों की देखभाल के लिए अयोग्य है। खासकर जब कोई सबूत नहीं लाया गया हो। यह भी साबित नहीं हो पाया कि बच्चों की देखभाल करने में मां उपेक्षा करती थी, या उसके आचरण के कारण बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ा है।