हमारे देश में विभिन्नता एक ताकत है। हर राज्य का अपना कल्चर है। एक लय है। रीजनल व लोकल पार्टियों की अपनी खासियत है। ऐसे में इस सूत्र को तोड़ते हुए एक ही समय पर एक राष्ट्र, एक चुनाव करवाना कारगर है भी या नहीं, ये देखना पड़ेगा।
और इसे सतही तौर पर देखना भारी भूल होगी। इस पर चर्चा जारी है। अभी हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने कहा था कि एक राष्ट्र, एक चुनाव से चाहे जनता का पैसा बचेगा पर इससे सत्ताधारी पार्टी को फायदा पहुंचेगा।
वन नेशन, वन इलेक्शन को करवाना ठीक रहेगा या नहीं इसपर बात करते हैं।
40 साल पहले 1983 में पहली बार चुनाव आयोग ने इसका सुझाव दिया था। तब भी लाभ और हानि पर बहस के बीच यह रह गया। 2023 में फिर राग छेड़ा गया। सबसे पहले तो प्रस्ताव का अध्ययन करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द को नौ सदस्यीय समिति का प्रमुख बनाया गया। और इसमें मात्र एक विपक्षी नेता रखा गया जो बाद में इस्तीफ़ा दे गया।
अब जो लोग कहते हैं कि एक राष्ट्र, एक चुनाव कारगर है-उनका तर्क है कि भारत में हर छह महीने में कहीं न कहीं चुनाव होते हैं। ऐसे बार-बार होने वाले चुनावों में समय लगता है। सरकारी और गैर सरकारी कर्मचारी 5 -6 के लिए ट्रेनिंग के लिए बुलाये जाते हैं। जहां वो पहले काम कर रह होते हैं, वहां काम रुकता है या प्रभावित होता है। उनको थोड़ा बहुत एक्स्ट्रा पैसा दिया जाता है। तो पैसा भी लगा।
व्यय की भारी बर्बादी होती है, और चुनाव के दौरान आचार संहिता के नियम हर बार छह से आठ सप्ताह तक शासन को बाधित करते हैं। ऐसे में लोगों के काम रुके तो दिक्कतों का अंदाजा खुद ही लगाया जा सकता है। प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर भी बोझ कम पड़ेगा।
इसलिए, हर पांच साल में एक बार सभी चुनाव एक साथ कराना अधिक कुशल और अधिक किफायती होगा।
ज़्यादातर लोग इसके पक्ष में नहीं हैं। उनका मन्ना है कि हमारे प्रत्येक राज्य की अपनी अलग राजनीतिक संस्कृति है, कई राज्यों में उनके क्षेत्रों के लिए विशेष पार्टियाँ हैं।
कई जगह राज्य की रीजनल पार्टी सत्ता में होती है और उन्हें अपना काम और शासन अपने तरीके से चलाना होता है। राज्य अपनी लय में चलते हैं, जो सेंटर से बहुत अलग है। लोगों का आम जीवन भी बाधित होता है। राजनीतिक रैलियां करने से सड़क यातायात बाधित होता है। ध्वनि प्रदूषण भी होता है। ऐसे में उनपर वन नेशन, वन इलेक्शन थोपना सही नहीं है।
सबसे बढ़कर, हमारी संसदीय प्रणाली है जिसमें सरकारें केवल विधायी बहुमत से ही जीवित रहती हैं। और जब खास परिस्थितियों के कारण कोई सरकार अपना बहुमत खो भी देती है, तो वह गिर जाती है।
ऐसे में यदि किसी और के लिए दूसरा बहुमत नहीं मिल पाता है, तो उपलब्ध एकमात्र लोकतांत्रिक विकल्प दूसरा चुनाव कराना है। मनमाने चुनाव कैलेंडर के अनुरूप राष्ट्रपति शासन लागू करना यकीनन अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक होगा। कारण है यह राष्ट्रपति शासन कितना लंबा चलेगा कौन जाने। और क्या होगा यदि केंद्र सरकार ही उसी कारण से गिर जाए, जैसा कि 1979 और 1998 के बीच पहले भी कई बार हो चुका है।
सरकार का तर्क देश के बड़े और विविध लोकतंत्र में संसदीय प्रणाली की अनिश्चितताओं के साथ मेल नहीं खाता है। एक एकल चुनाव कैलेंडर केवल राष्ट्रपति प्रणाली में ही काम कर सकता है जहां कार्यपालिका का अस्तित्व विधायी बहुमत पर निर्भर नहीं है। यह वह प्रणाली नहीं है जो हमारे पास है।
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कुछ राजनीतिक दलों का तर्क है कि यह मतदाताओं के व्यवहार को इस तरह से प्रभावित कर सकता है कि मतदाता राज्य चुनावों के लिये भी राष्ट्रीय मुद्दों को केंद्र में रखकर मतदान करेंगे जिससे बड़े राष्ट्रीय दल, राज्य विधानसभा तथा लोकसभा दोनों चुनावों में जीत हासिल कर सकते हैं और इस तरह क्षेत्रीय दल हाशिये पर चले जाएंगे। राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव कभी-कभी अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं, और जब वे एक साथ आयोजित किये जाएंगे तो मतदाता मुद्दों के एक सेट को दूसरे की तुलना में अधिक महत्त्व दे सकते हैं।
हालाँकि 1951 से 1967 के बीच लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन कार्यकाल समाप्त होने से पहले विधानसभाओं और लोकसभाओं के बार-बार भंग होने के कारण इसे ख़त्म कर दिया गया। वर्तमान में केवल कुछ राज्यों (आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम) की विधानसभाओं के चुनाव ही लोकसभा चुनावों के साथ होते हैं।
अगस्त 2018 में भारत के विधि आयोग द्वारा एक साथ चुनावों पर जारी मसौदा रिपोर्ट के अनुसार, एक राष्ट्र एक चुनाव के अभ्यास से सार्वजनिक धन की बचत की जा सकती है, प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले तनाव को कम किया जा सकेगा, सरकारी नीतियों को समय पर लागु किया जा सकेगा तथा चुनाव प्रचार के बजाय विकास गतिविधियों पर ध्यान होगा व विभिन्न प्रशासनिक सुधार किये जा सकेंगे।
चुनाव कराने में चुनौतियाँ:
संविधान के अनुच्छेद 83(2) और अनुच्छेद 172 में कहा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष का होगा। यदि इन्हें पहले भंग न किया जाए। अनुच्छेद 356 के तहत ऐसी परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हो सकती हैं जिसमें विधानसभाएं पहले भी भंग की जा सकती हैं।
इसलिये केंद्र अथवा राज्य सरकार का कार्यकाल पूरा होने से पहले सरकार गिरने की स्थिति में उक्त योजना को अमली जमा पहनना सबसे अहम प्रश्न है। इस तरह के बड़े बदलाव के लिये संविधान में संशोधन करने होंगे। उसके लिए बहस होगी। सेशन चलेंगे। पैसा और समय तो फिर भी खर्च होगा। ऐसे बदलाव और संवैधानिक संशोधन चिंताजनक मिसाल भी साबित हो सकते हैं।
एक साथ चुनाव के लिये लगभग 30 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन और वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) मशीनों की आवश्यकता होगी। भारतीय चुनाव आयोग ने 2015 में सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें संविधान तथा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन का सुझाव दिया गया। ECI ने कहा है कि एक साथ चुनाव कराने के लिये पर्याप्त बजट की आवश्यकता होगी।हर 15 साल बाद मशीनों को बदलने की अतिरिक्त लागत लगेगी। EVM और VVPAT की खरीद के लिये लगभग 9,284.15 करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। एक साथ चुनाव होने से चुनावों के लिये मशीनों को एकत्र करने हेतु भंडारण लागत में वृद्धि होगी।
आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के एक विश्लेषण से पता चल था कि औसतन 77 फीसदी संभावना है कि चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता लोकसभा और विधानसभा दोनों के लिए एक ही पार्टी को वोट देंगे।
एआईएमआईएम, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, सीपीआई और कांग्रेस वन नेशन, वन इलेक्शन को खारिज कर चुके हैं।
विदेश का हाल
ब्राजील, कोलंबिया और फिलीपींस (राष्ट्रपति शासन प्रणाली) में राष्ट्रपति पद के लिए और विधायी स्तर पर चुनाव साथ होते हैं। दक्षिण अफ्रीका और स्वीडन में आम चुनाव और प्रांतीय चुनाव साथ होते हैं। दक्षिण अफ्रीका में आम और प्रांतीय चुनाव एक साथ पांच साल के लिए होते हैं और नगर निगम चुनाव दो साल बाद होते हैं। स्वीडन में राष्ट्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिका/काउंटी परिषद और स्थानीय निकायों/म्युनिसिपल असेंबली के चुनाव चार साल के लिए एक निश्चित तिथि यानी सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं।
कौन करता है खर्च
लोकसभा चुनाव पर खर्च भारत सरकार करती है। राज्य विधानमंडलों का चुनाव राज्य सरकारों की ओर से किया जाता है। अगर लोकसभा और राज्य विधानसभा के लिए एक साथ चुनाव होता है तो खर्च भारत सरकार और संबंधित राज्य सरकारों के बीच साझा किया जाता है। वहीं, भले ही चुनाव लोकसभा का हो, कानून और व्यवस्था बनाए का खर्च राज्य सरकारों की ओर से उठाया जाता है।
भारत में एक साथ चुनाव की व्यवस्था को लॉ कमीशन वर्किंग पेपर (2018) की सिफारिशों के अनुसार जानें :
- संविधान, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 तथा लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में संशोधन के माध्यम से एक साथ चुनाव बहाल किये जा सकते हैं। वर्ष 1951 के अधिनियम की धारा 2 में एक परिभाषा जोड़ी जा सकती है।
- लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कामकाज़ के नियमों में संशोधन के माध्यम से अविश्वास प्रस्ताव को रचनात्मक अविश्वास मत से बदला जा सकता है।
- त्रिशंकु विधानसभा अथवा संसद में गतिरोध को रोकने के लिये दल-बदल विरोधी कानून की शक्ति को कम किया जा सकता है।
- लचीलापन सुनिश्चित करने के उद्देश्य से आम चुनावों की घोषणा के लिये छह महीने की वैधानिक समय- सीमा को एक बार बढ़ाया जा सकता है।
उपरोक्त बातों को देखते हुए इस विचार पर गहन अध्ययन और विमर्श ज़रूरी है। इस बात पर आम सहमति होनी चाहिये कि देश को एक राष्ट्र, एक चुनाव की ज़रूरत है या नहीं। सभी राजनीतिक दलों को मुद्दे पर विचार विमर्श में सहयोग करना चाहिये। जनता की राय को ध्यान में रखा जाए। इस तरह जो भी हल निकले उसपर अमल किया जा सकता है पर आंख -कान खुले रख कर।